शेष नारायण सिंह
19 May 2012
भारत के इतिहास में अस्सी के दशक को एक ऐसे कालखंड के रूप में याद किया जाएगा, जिसमें आजादी की लड़ाई के मुख्य मूल्यों और मान्यताओं को तिलांजलि देने का काम शुरू हो गया था. धर्मनिरपेक्ष राजनीति और सामाजिक बराबरी का लक्ष्य हासिल करना स्वतंत्रता संग्राम का स्थायी भाव था. १९२० से १९४७ तक चली आज़ादी की लड़ाई में हर मोड़ पर इस बुनियादी समझदारी को देखा सकता था. इस दौर में देश के आम आदमी को विदेशी सत्ता के खिलाफ उठ खड़े होने की प्रेरणा महात्मा गाँधी ने दी थी. भारत का आम आदमी महात्मा गांधी के साथ था. इस आन्दोलन की राजनीति के वाहक के रूप में कांग्रेस पार्टी ने इस देश की जनता को नेतृत्व दिया था. आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी तो चले गए थे, लेकिन जवाहर लाल नेहरू ने पूंजी के सामाजिक नियंत्रण और सोशलिस्टिक पैटर्न आफ सोसाइटी की राजनीति के ज़रिये धर्म निरपेक्षता और सामाजिक समरसता के सिद्धांत को जारी रखने का काम किया था.
आज़ादी के बाद इस देश में ऐसी बहुत सारी राजनीतिक जमातें खड़ी हो गयी थीं, जिनके नेता आजादी की लड़ाई के दौर में अंग्रेजों के साथ थे. जवाहर लाल नेहरू के जाने के बाद कुछ चापलूस टाइप कांग्रेसियों ने उनकी बेटी को प्रधानमंत्री बनवा दिया और उसी के बाद देश की राजनीति में सांप्रदायिक ताक़तों को इज्ज़त मिलनी शुरू हो गयी. १९७५ में जब इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे को सरकार और कांग्रेस की सत्ता सौंपने की कोशिश शुरू की तब तक अपने देश की राजनीति में राजनीतिक शुचिता को अलविदा कह दिया गया था. इंदिरा गाँधी ने साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति को बढ़ावा देने का फैसला किया. उनके इस प्रोजेक्ट का ही नतीजा था कि पंजाब में सिखों को अलग-थलग करने की कोशिश हुई. उसी दौर में राजनीति में कमीशनखोरी को डंके की चोट पर प्रवेश दे दिया गया. इंदिरा जी के परिवार के ही एक सदस्य को रायबरेली की उस सीट से सांसद चुना गया जिसे उन्होंने खुद खाली किया था. इन महानुभाव ने पहले उनके बड़े छोटे और उसकी अकाल मृत्यु के बाद इंदिरा जी के बड़े बेटे के ज़रिये राजनीतिक फैसलों को व्यापार से जोड़ दिया. हर राजनीतिक फैसले से कमीशन को जोड़ दिया गया.
इसी दौर में कुछ निहायत ही गैरराजनीतिक टाइप लोग दिल्ली दरबार के फैसले लेने लगे. इसी दौर में ६५ करोड़ की दलाली वाला बोफर्स हुआ जो कि बाद के सत्ताधीशों के लिए घूसखोरी का व्याकरण बना. इसी दौर में अपने ही देश में दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा हुआ. अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल यूनिट में ज़हरीली गैस लीक हुई, जिसके कारण भोपाल शहर में हज़ारों लोग मारे गए और लाखों लोग उसके शिकार हुए. भोपाल गैस काण्ड के बाद अपने देश में अमरीका की तर्ज़ पर एनजीओ वालों ने काम करना शुरू किया और उन्हीं एनजीओ वालों के कारण भोपाल के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका. भोपाल के पीड़ितों की मदद करने के नाम पर लोगों ने अपने कैरियर बनाए, भोपाल की पीड़ितों के संघर्ष में भाग लेने के लिए विदेशों से सीधे या परोक्ष रूप से धन की वसूली की, भोपाल के गैस पीड़ितों की बीमारियों तकलीफों, उनके अनुभवों, उनकी उम्मीदों, उनकी निराशाओं तक को अंतरराष्ट्रीय मंचों और सेमिनारों में बाकायदा ठेला लगाकर बेचा गया. सरकारी अफसरों, राजनेताओं, वकीलों, एनजीओ वाले लोगों यहाँ तक कि अदालतों ने भी भोपाल के लोगों की मुसीबतों की कीमत पर मालपुआ उड़ाया.
१९८९ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में ४७ करोड़ डालर वाला सेटिलमेंट आया था. कुछ बहुत ही ईमानदार लोगों ने उस फैसले को चुनौती दी थी. लेकिन उनको पता भी नहीं चला और दिल्ली में आपरेट करने वाले कुछ अंतरराष्ट्रीय धंधेबाजों ने यूनियन कार्बाइड के खिलाफ चल रहे संघर्ष को को-आप्ट कर लिया. १९८९ में आये इस फैसले और उसके खिलाफ दिल्ली में चल रहे संघर्ष में शामिल कुछ ईमानदार और कुछ बेईमान लोगों के काम के इर्द-गिर्द लिखी गयी एक किताब बाज़ार में आई है.
नामी पत्रकार अंजली देशपांडे ने बहुत ही कुशलता से उस दौर में दिल्ली में सक्रिय कुछ युवतियों की ज़िंदगी के हवाले से उस वक़्त के राजनीतिक के सन्दर्भ का इस्तेमाल करते हुए एक कहानी बयान की है. मूल रूप से भोपाल की त्रासदी के बारे में लिखी गयी यह किताब उपन्यास है, लेकिन इसे मैं उपन्यास नहीं कहूँगा. जिन लोगों ने उस दौर में भोपाल और उसके नागरिकों के दर्द को दिल्ली के सेमिनार सर्किट में देखा सुना है, उनको इस किताब में लिखी गयी बातें एक रिपोर्ताज जैसी लगेंगी. इस किताब के कुछ जुमले ऐसे हैं जो उन लोगों को सर्वकालीन सच्चाई लगेंगे, जिन्होंने दिल्ली के दरबारों में भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द का सौदा होते देखा है. इस किताब की ख़ास बात यह है कि हमारे समय की तेज़ तर्रार पत्रकार अंजली देशपांडे ने सच्चाई को बयान करने के लिए कई पात्रों को निमित्त बनाया है.
हालांकि किताब का कथानक भोपाल के गैस पीड़ितों के दर्द को पायेदार चुनौती देने की कोशिश के बारे में है लेकिन साथ-साथ सरकार, न्यायपालिका, राजनेता, मौक़ापरस्त बुद्दिजीवियों और व्यापारियों को आईना दिखा रही औरतों की अपनी ज़िंदगी की दुविधाओं के ज़रिये मेरे जैसे कन्फ्यूज़ लोगों को औरत की इज्ज़त करने की तमीज सिखाने का प्रोजेक्ट भी इस किताब में मूल कथानक के समानांतर चलता रहता है. नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों के पुरुष वर्चस्ववादी समाज में मौजूद उन लोगों को भी औकातबोध कराने का काम भी इस किताब में बखूबी किया गया है, जो औरत की शक्ति को कमतर करके देखते हैं. दिल्ली की भोगवादी संस्कृति में सत्तासीन अफसर की कामवासना का शिकार हो रही औरत भी अपनी पहचान के प्रति सजग रह सकती हैं और अपने फैसले खुद ले सकती हैं, यह बात अंजली ने बहुत ही साधारण तरीके से समझा दी है. अक्सर देखा गया है कि औरत के अधिकार की बात करते हुए वैज्ञानिक समझ वाला पुरुष भी गार्जियन बनने की कोशिश करने लगता है. इस किताब की औरतों को देखा कर लगता है कि उन लोगों की सोच पर भी लगाम लगाने का काम अंजली देशपांडे ने बखूबी किया है.
भोपाल के बाद और पीवी नरसिंह राव के पहले भारतीय राजनीति पूंजीवादी दर्शन की शरण में जाने के लिए जिस तरह की कशमकश से गुज़र रही थी उसकी भी दस्तक, इम्पीचमेंट नाम की इस अंग्रेज़ी किताब में सुनी जा सकती है. आज एनजीओ वाले इतने ताक़तवर हो गए हैं कि वे संसद को भी चुनौती देने लगे हैं. लेकिन अस्सी के दशक में वे ऐलानियाँ बाज़ार में आने में डरते थे और परदे के पीछे से काम करते थे. इस कथानक में जो आदमी शुरू से ही भोपाल के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सक्रिय है, वह दिल्ली में पाए जाने वाले दलाली संस्कृति का ख़ास नमूना है. वह कुछ ईमानदार लोगों को इकठ्ठा करता है, उनको बुनियादी समर्थन देता है लेकिन आखिर में पता लगता है कि बाकी लोग तो न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे, लेकिन वह न्याय की लड़ाई लड़ाने के धंधा कर रहा था.
आज तो ऐलानियाँ फोर्ड फाउंडेशन से भारी रक़म लेकर एनजीओ वाले संसद को चुनौती देने के लिए चारों तरफ ताल ठोंकते नज़र आ जायेंगे, लेकिन उन दिनों अमरीकी संस्थाओं से पैसा लेना और उसको स्वीकार करना बिलकुल असंभव था. खासकर अगर उस पैसे का इस्तेमाल भोपाल जैसी त्रासदी के खिलाफ न्याय लेने के लिए किया जा रहा हो. लेकिन पैसा लिया गया और पवित्र अन्तः करण से लड़ाई लड़ रही औरतों को आखिर में साफ़ लग गया कि आन्दोलन वास्तव में शुरू से ही सरकारी एजेंटों के हाथ में था और ईमानदारी से न्याय की लड़ाई लड़ रही लड़कियां केवल उसी पूंजीवादी लक्ष्य को हासिल करने के लिए औज़ार बनायी गयी थीं. उनके कारण ही सुप्रीम कोर्ट और सरकार की मिलीभगत को दी जा रही चुनौती को विश्वसनीय बनाया जा सका. भोपाल के हादसे से भी बड़ा हादसा दिल्ली के दरबारों में हुआ था, जब सत्ता में शामिल सभी लोग मिल कर यूनियन कार्बाइड के कारिंदे बन गए थे. पूरी किताब पढ़ जाने के बाद यह बात बहुत ही साफ़ तरीके से सामने आ जाती है.
स्थापित सत्ता किस तरह ईमानदार लोगों का शोषण करती है उसको भी समझा जा सकता है. दिल्ली में कुछ लोग ऐसे हैं जो हर सेमिनार में मिल जाते हैं. वे अपने आप को सम्मानित व्यक्ति कहलवाते हैं. हर तरह के अन्याय के खिलाफ बयान देते है और बाद में अन्यायी से मिल जाते हैं. १९८९ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुए सेटिलमेंट के बाद यह लोग भी सक्रिय हो गए थे और उनके खोखलेपन को भी समझने का मौक़ा यह किताब देती है. किसी भी न्याय की लड़ाई में किस तरह से अवसरवादियों की यह प्रजाति घूस लेती है, उसका भी अंदाज़ १९८९ की इन घटनाओं से साफ़ लग जाता है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराश दिल्ली में सक्रिय न्याय की योद्धा औरतों ने जब उन जजों के इम्पीचमेंट यानी महाभियोग की बात की. तो उसको खारिज करवाने के लिए स्थापित सत्ता ने जो तर्क दिए वह भी पूंजीवादी संस्कृति में मौजूद दलाली के जीनोम को रेखांकित कर देती है, उन तर्कों को काट पाना आसान नहीं है. किताब के एक चरित्र हैं कानून के शिक्षक, प्रोफ़ेसर थापर. वे सवाल पूछते हैं कि किस पर महाभियोग चलेगा उन नेताओं और अफसरों पर जिनको कार्बाइड ने भारी रक़म दी?
क्या आपको मालूम है कितने नेताओं की पत्नियां न्यूयार्क में खरीदारी करने गयी थीं और उनका सारा भुगतान कार्बाइड ने किया था? क्या आप उन सभी अफसरों पर महाभियोग चलायेंगे जो भोपाल की कार्बाइड फैक्टरी में जांच करने गए थे और लौट कर बताया कि सब कुछ ठीक है या उन डाक्टरों पर जिन्होंने सिद्धांत बघारा कि भोपाल में गैस से कोई नहीं मरा था, बल्कि मरने वाले वे लोग हैं, जो बीमार थे या वैसे भी मरने वाले थे. या उन अर्थशास्त्रियों पर अभियोग चलायेंगे, जो कहते हैं कि कार्बाइड जैसे उद्योगों की हमें बहुत ज़रुरत है क्योंकि उसी से तरक्की होती है. भोपाल के हादसे के बाद उस सहारा पर मौत की छाया पड़ गयी थी लेकिन जिस तरह से दिल्ली के गिद्धों ने उस हादसे को अपनी आमदनी का साधन बनाया वह अंजली देशपांडे की किताब में बहुत ही शानदार तरीके से सामने आया है.
लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्ठ पत्रकार तथा स्तम्भकार हैं. वे एनडीटीवी, जागरण, जनसंदेश टाइम्स समेत कई संस्थानों में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं. इन दिनों दैनिक देश बंधु को वरिष्ठ पद पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं.
IAEA’s First Nuclear Energy Summit in Brussels: More than 600 organisations
protest globally, call it “fairy tale”
-
According to activist group Don’t Nuke the Climate, tripling nuclear
capacity by 2050 would require countries to connect between 24 and 28 new
reactors t...
Post a Comment